ताजा ख़बरेंदेशब्रेकिंग न्यूज़

लिव-इन रिलेशनशिप कब क़ानून की नज़र में सही हैं?

WhatsApp Image 2025-09-25 at 3.01.05 AM

लिव-इन रिलेशनशिप कब क़ानून की नज़र में सही हैं?

लिव-इन रिलेशनशिप, यानी शादी किए बगैर लंबे समय तक एक घर में साथ रहने पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं. किसी की नज़र में ये मूलभूत अधिकारों और निजी ज़िंदगी का मामला है, तो कुछ इसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के पैमाने पर तौलते हैं.

एक ताज़ा मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज़ ठहराते हुए कहा है कि ये “संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ़” की श्रेणी में आता है.

mantr
96f7b88c-5c3d-4301-83e9-aa4e159339e2 (1)

याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा था कि दो साल से अपने पार्टनर के साथ अपनी मर्ज़ी से रहने के बावजूद, उनके परिवार उनकी ज़िंदगी में दखलअंदाज़ी कर रहे हैं और पुलिस उनकी मदद की अपील को सुन नहीं रही है.

कोर्ट ने अपने फ़ैसले में साफ़ किया कि, “लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनोमी (व्यक्तिगत स्वायत्तता) के चश्मे से देखने की ज़रूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से.”

भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई क़ानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ किया है.

Ashish Sinha

e6e82d19-dc48-4c76-bed1-b869be56b2ea (2)

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!