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कांग्रेस के बंगाल पुनरुद्धार की उम्मीदें वाम मोर्चे के साथ साझेदारी पर टिकी

कांग्रेस के बंगाल पुनरुद्धार की उम्मीदें वाम मोर्चे के साथ साझेदारी पर टिकी

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कोलकाता: साल 2004 के लोकसभा चुनाव के परिणाम विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के संदर्भ में हैरान करने वाले थे। राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 35 सीटों पर सीपीआई(एम) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे की जीत में हैरानी नहीं थी, बल्कि उस साल राज्य में कुल छह सीटें जीतकर चुनाव में दूसरी प्रमुख ताकत के रूप में कांग्रेस का उभरना था।
इसके विपरीत तृणमूल कांग्रेस ने तब राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के साथ गठबंधन किया और पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी पार्टी ने केवल एक सीट पर जीत हासिल की और भाजपा शून्य पर सिमट गई। 2004 से 2009 तक पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लोकसभा में एकमात्र तृणमूल कांग्रेस सदस्य थीं।

साल 2004 में पश्चिम बंगाल में मुकाबला त्रिकोणीय था, जिसमें कांग्रेस और वाम मोर्चा बिना किसी सीट बंटवारे के समझौते के चुनाव लड़ रहे थे। हालांकि, तब कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों के नेतृत्व ने अपने-अपने चुनाव अभियानों के दौरान भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ सबसे मजबूत विपक्षी ताकतों का समर्थन करने का सूक्ष्म मैसेज दिया। रणनीति 2004 में पश्चिम बंगाल में काम कर गई और राज्य में तृणमूल कांग्रेस एक सीट जीत सकी, जबकि उसकी तत्कालीन सहयोगी भाजपा शून्य पर रही।

अब 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए वर्तमान संकेतों के अनुसार, कांग्रेस और वाम मोर्चा सीट-साझाकरण समझौते के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, वो भी ऐसी स्थिति में जहां भाजपा 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से राज्य में सबसे मजबूत विपक्षी दल के रूप में उभरी है।

अब सवाल यह है कि क्या पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा और कांग्रेस का यह संयुक्त कदम 2024 में काम करेगा। सवाल यह भी उठता है कि एक ही समय में लोगों को तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को खारिज करने के लिए मनाने के लिए कांग्रेस और वाम मोर्चा के लिए अभियान की रणनीति क्या होगी।

पश्चिम बंगाल में राज्य कांग्रेस अध्यक्ष और अनुभवी पार्टी लोकसभा सदस्य अधीर रंजन चौधरी और माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य एवं पश्चिम बंगाल में पार्टी के राज्य सचिव मोहम्मद सलीम दोनों 2024 लोकसभा चुनावों के लिए समझ के साथ आगे बढ़ने के अपने तर्क के बारे में स्पष्ट हैं।

दोनों का मानना है कि पश्चिम बंगाल में उनके संबंधित वोट बैंक में गिरावट, जो 2021 के राज्य विधानसभा चुनावों में अपने निम्न बिंदु पर पहुंच गई थी, वास्तव में सुधार के तेज संकेत दे रही है।

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दोनों के अनुसार, वाम मोर्चा और कांग्रेस के बीच सफल गठबंधन मॉडल का ताजा उदाहरण मुर्शिदाबाद जिले में अल्पसंख्यक बहुल सागरदिघी विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में देखा गया, जहां वाम मोर्चा समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार बायरन बिस्वास प्रचंड बहुमत के साथ एक विजेता के रूप में उभरे।

चौधरी और सलीम दोनों को लगता है कि सागरदिघी चुनाव न केवल तृणमूल कांग्रेस के समर्पित अल्पसंख्यक वोट बैंक में गिरावट की शुरुआत का संकेत है, बल्कि इस बढ़ते विश्वास के अंत की शुरुआत भी है कि केवल भाजपा ही पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला कर सकती है।

चौधरी ने कहा कि क्या तृणमूल ने त्रिपुरा और गोवा में इसलिए चुनाव नहीं लड़ा कि भाजपा विपक्ष के वोटों में विभाजन का फायदा उठा सके? क्या उन्होंने एक बार भी कर्नाटक के लोगों से कांग्रेस को वोट देने की अपील की थी? यहां तक कि उन्होंने कर्नाटक के परिणामों के लिए कांग्रेस और हमारे नेता राहुल गांधी की भूमिका को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अब वह कांग्रेस से बदले की मांग कर रही हैं।

देश ने भारत के उपराष्ट्रपति के पिछले चुनाव में उनकी भूमिका देखी है, जहां तृणमूल कांग्रेस के सांसद मतदान से दूर रहे और इससे अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को मदद मिली।

सलीम के अनुसार, मुर्शिदाबाद जिले के सागरदिघी विधानसभा क्षेत्र के हालिया उपचुनावों के नतीजों ने साबित कर दिया है कि धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों का उचित गठबंधन होने पर न तो तृणमूल कांग्रेस और न ही भाजपा जीतेगी। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भी यही बात लागू होती है। सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों को खुले दिमाग से आगे बढ़ना होगा।

राजनीतिक विश्लेषक सब्यसाची बंदोपाध्याय के मुताबिक, सीटों के बंटवारे के मामले में तृणमूल कांग्रेस की तुलना में कांग्रेस वाम मोर्चे के साथ बेहतर सौदेबाजी की स्थिति में होगी। राजनीतिक विश्लेषक अमल सरकार को लगता है कि फायदे की संभावनाएं वाममोर्चा के बजाय कांग्रेस के लिए ज्यादा हैं।

अमल सरकार ने कहा कि सीपीआई (एम) या वाम मोर्चा एक अत्यंत प्रतिगामी शक्ति है। इसलिए वाम मोर्चा के लिए अपने पारंपरिक मतदाताओं को जुटाना आसान होगा। इसलिए वाम मोर्चे के लिए गठबंधन के फामूर्ले के तहत अपने पारंपरिक मतदाताओं को कांग्रेस उम्मीदवार के पीछे लामबंद करना आसान होगा। लेकिन मुझे नहीं लगता कि वाम मोर्चे के पीछे कांग्रेस अपने पारंपरिक मतदाताओं की उतनी ही लामबंदी हासिल कर पाएगी।

लेकिन निश्चित रूप से सागरदिघी उपचुनाव का परिणाम एक तरह से तृणमूल कांग्रेस के लिए स्पष्ट संकेत था कि अगर समर्पित अल्पसंख्यक वोट बैंक 2021 में भाजपा की भारी लहर से निपटने में उसकी मदद कर सकता है, तो वही मतदाता राज्य की सत्ताधारी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं।

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