
महाकुंभ में गंगा की पवित्रता पर संकट: सरकार के दावों की खुली पोल
महाकुंभ में गंगा की पवित्रता पर संकट: सरकार के दावों की खुली पोल
प्रयागराज। महाकुंभ 2025 को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें भव्य आयोजन के दावे कर रही हैं, लेकिन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की रिपोर्ट सरकार के दावों की पोल खोल रही है। रिपोर्ट के अनुसार, संगम घाट पर मल-जनित कोलीफॉर्म की मात्रा प्रति 100 मिलीलीटर पानी में 12,500 मिलियन और शास्त्री पुल के पास 10,150 मिलियन पाई गई है, जो सुरक्षित स्तर 2000 मिलियन से कई गुना अधिक है। यह पानी न केवल पीने लायक नहीं बल्कि स्नान के योग्य भी नहीं है।
गंगा सफाई के नाम पर अरबों खर्च, लेकिन प्रदूषण जस का तस
वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के उद्देश्य से ‘नमामि गंगे परियोजना’ शुरू की थी, जिस पर पिछले दस वर्षों में हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इस परियोजना को बड़े कॉरपोरेट घरानों को सौंपा गया, लेकिन परिणाम शून्य रहा। यदि इतने वर्षों में इतनी बड़ी धनराशि खर्च की गई, तो गंगा का जल आज भी इतना प्रदूषित क्यों है? यह सवाल सरकार की नीयत और कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
महाकुंभ में 7300 करोड़ का बजट, फिर भी गंदा पानी?
महाकुंभ के आयोजन के लिए सरकार ने 7300 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की है, लेकिन तीर्थयात्रियों को नहाने और पीने के लिए स्वच्छ जल तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका। इस मुद्दे पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने भी संज्ञान लिया और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की रिपोर्ट को प्रमाणिक बताया। बावजूद इसके, सरकार इस गंभीर विषय पर चुप्पी साधे हुए है।
सरकारी दावों और हकीकत में अंतर
केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने दावा किया था कि गंगा जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए भारत के नाभिकीय अनुसंधान केंद्रों (BARC) की तकनीक का उपयोग कर विशेष फिल्ट्रेशन प्लांट लगाए गए हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि गंगा का पानी पहले से भी अधिक प्रदूषित हो चुका है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि वह तकनीक और प्लांट आखिर कहां गए?
क्या सरकारी आंकड़ों में सेंधमारी?
सरकार ने दावा किया है कि महाकुंभ में 35 करोड़ से अधिक श्रद्धालु पहुंचे हैं, लेकिन इस संख्या की स्वतंत्र रूप से कोई पुष्टि नहीं की गई है। यदि 15 करोड़ लोग भी इस आयोजन में शामिल हुए हों, तो प्रति व्यक्ति सरकारी खर्च 500 रुपये बैठता है। ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी धनराशि खर्च होने के बावजूद स्वच्छ जल क्यों उपलब्ध नहीं हो सका?
प्रधानमंत्री की “डुबकी” पर सवाल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाकुंभ में गंगा स्नान किया, लेकिन उनकी “डुबकी” को लेकर सवाल उठ रहे हैं। जब आम श्रद्धालु गंदे पानी में डुबकी लगा रहे थे, तब प्रधानमंत्री विशेष सूट-बूट पहनकर सतही डुबकी लगाते दिखे। उनके साथ भाजपा और संघ के अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी इसी तरह की डुबकी लगाई। सवाल यह है कि यदि गंगा वास्तव में स्वच्छ थी, तो प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं ने पूरी तरह डुबकी क्यों नहीं लगाई?
गंगा की पवित्रता को लेकर अवैज्ञानिक तर्कों का सहारा
सरकार गंगा की स्वच्छता को लेकर अवैज्ञानिक तर्क पेश कर रही है। भाजपा और संघ का आईटी सेल यह प्रचार कर रहा है कि गंगा जल में खुद को शुद्ध करने की क्षमता है। यदि यह सच होता, तो ‘नमामि गंगे’ परियोजना की जरूरत ही क्यों पड़ती? इसके अलावा, एक अज्ञात विशेषज्ञ के हवाले से यह दावा किया जा रहा है कि गंगा जल कीटाणु रहित है, जबकि सरकारी एजेंसियों की रिपोर्ट इसे झूठा साबित कर रही हैं।
सरकार की प्राथमिकता: धर्म या राजनीति?
सरकार की नाकामी पर सवाल उठाने वालों को हिंदू विरोधी, सनातन विरोधी करार दिया जा रहा है। लेकिन जब केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) जैसी सरकारी एजेंसियां गंगा के प्रदूषित होने की पुष्टि कर रही हैं, तो क्या ये एजेंसियां भी हिंदू विरोधी हो गईं?
आस्था के नाम पर राजनीति और श्रद्धालुओं की उपेक्षा
महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों का उपयोग अब केवल राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए किया जा रहा है। श्रद्धालुओं की आस्था का उपयोग चुनावी फायदे के लिए किया जाता है, लेकिन उनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। गंगा के प्रदूषण की गंभीरता को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि सरकार धार्मिक भावनाओं का दोहन बंद कर, गंगा की वास्तविक सफाई पर ध्यान दे। अन्यथा, “राम तेरी गंगा मैली हो गई” केवल एक फिल्मी डायलॉग नहीं, बल्कि कठोर सत्य बनकर सामने आएगा।