
टीएस सिंह देव: सीएम संघर्ष, अटूट निष्ठा और 31 अक्टूबर का मौन संकल्प
टीएस सिंह देव के करियर की सबसे बड़ी चुनौती: मुख्यमंत्री पद की खींचतान और 'ढाई साल फॉर्मूले' का विवाद। जानें कैसे उनके अटूट पार्टी अनुशासन और 31 अक्टूबर के मौन संकल्प ने उन्हें इस सत्ता संघर्ष से निकलने में मदद की।
विशेष लेख: टीएस सिंह देव: सत्ता संघर्ष की अग्निपरीक्षा, अटूट निष्ठा और 31 अक्टूबर का मौन संकल्प
त्रिभुवनेश्वर शरण सिंह देव (टीएस बाबा) का राजनीतिक जीवन उनकी राजसी पृष्ठभूमि, अटूट पार्टी निष्ठा और छत्तीसगढ़ की राजनीति के सबसे तीखे सत्ता संघर्ष के लिए जाना जाता है। उनका जन्मदिन 31 अक्टूबर इस संघर्ष और उनकी प्रतिबद्धता दोनों का प्रतीक है।
1. 31 अक्टूबर: संघर्ष के बीच निष्ठा का प्रतीक
टीएस सिंह देव अपने जन्मदिन को नहीं मनाते, यह उनकी कांग्रेस पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह मौन संकल्प उनके राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े संघर्ष—मुख्यमंत्री पद की खींचतान—के दौरान भी पार्टी आलाकमान के प्रति उनकी निष्ठा को बनाए रखने का आधार बना।
- निष्ठा बनाम पद: ढाई साल के कथित मुख्यमंत्री पद के वादे को लागू न किए जाने के बाद जब उनके और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बीच तनाव चरम पर था, तब भी टीएस बाबा ने सार्वजनिक रूप से पार्टी नेतृत्व के फैसलों पर कभी कोई सीधा हमला नहीं किया।
- सादगी की शक्ति: 31 अक्टूबर का उनका मौन व्रत यह संदेश देता है कि उनके लिए सिद्धांत और पार्टी के प्रति सम्मान व्यक्तिगत पद या आकांक्षाओं से अधिक महत्वपूर्ण है।
2. सत्ता संघर्ष का आंतरिक पहलू: ढाई साल का फॉर्मूला
टीएस सिंह देव के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा संकट 2018 विधानसभा चुनावों के बाद शुरू हुआ।
- सीएम पद की दावेदारी: 2018 में कांग्रेस की जीत में ‘जन घोषणा पत्र’ बनाने में उनकी केंद्रीय भूमिका थी। वह मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे।
- सीटों का बँटवारा (अंदरूनी चर्चा): पार्टी आलाकमान ने भूपेश बघेल को सीएम चुना, लेकिन अंदरूनी तौर पर ‘ढाई-ढाई साल’ के फॉर्मूले की चर्चा थी, जिसके तहत सत्ता टीएस सिंह देव को हस्तांतरित होनी थी।
- विश्वास का टूटना: जब पहला ढाई साल का कार्यकाल पूरा हुआ, तो सत्ता हस्तांतरण नहीं हुआ। टीएस सिंह देव के समर्थकों ने दिल्ली में डेरा डाला, जिससे आलाकमान और टीएस बाबा के खेमे के बीच विश्वास का संकट उत्पन्न हुआ।
- अधिकार का हनन: टीएस बाबा ने पंचायत विभाग से इस्तीफा देते हुए सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके विभाग के कार्यों में हस्तक्षेप किया जा रहा है, जिससे वे पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहे हैं।
3. संघर्ष का परिणाम और साख पर असर
मुख्यमंत्री पद की इस लंबी खींचतान ने टीएस सिंह देव की राजनीतिक साख पर भी असर डाला, लेकिन अंततः आलाकमान ने 2023 चुनाव से ठीक पहले उन्हें छत्तीसगढ़ का पहला उपमुख्यमंत्री बनाकर उनकी वरिष्ठता को सम्मान दिया।
- अंतर्द्वंद्व: यह संघर्ष टीएस सिंह देव के भीतर के राजसी गौरव (पद की मांग) और कांग्रेसी निष्ठा (पार्टी के अनुशासन का पालन) के बीच का अंतर्द्वंद्व था।
- जनता में छवि: मुख्यमंत्री बनने से चूकने के बावजूद, जनता के बीच उनकी सादगी, शैक्षणिक योग्यता और स्पष्टवादिता की छवि बनी रही, जिसने उन्हें अंत तक एक मजबूत नेता बनाए रखा।
टीएस सिंह देव का जन्मदिन और उनका सीएम पद का संघर्ष, दोनों ही एक कहानी कहते हैं: वह एक ऐसे अनुभवी राजनेता हैं जो पद की राजनीति से ऊपर उठकर सिद्धांतों की राजनीति को महत्व देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक आकांक्षा का त्याग करना पड़ा हो।
यह संघर्ष मुख्य रूप से 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत के बाद शुरू हुआ और 2023 के चुनावों से ठीक पहले तक सुर्खियों में बना रहा। यह मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच नेतृत्व को लेकर एक खुली आंतरिक प्रतिस्पर्धा थी।
2018: दावेदारी और सीएम पद से चूक
- जीत में भूमिका: 2018 के चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत सुनिश्चित करने में टीएस सिंह देव का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने विपक्ष के नेता के रूप में संघर्ष किया और कांग्रेस का ‘जन घोषणा पत्र’ (Manifesto) तैयार किया, जिसके वादों (जैसे कर्जमाफी और धान का मूल्य) ने पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाया।
- दावेदारी: जीत के बाद, वह मुख्यमंत्री पद के एक प्रमुख दावेदार थे।
- परिणाम: पार्टी हाईकमान ने अंततः भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री चुना, जबकि टीएस सिंह देव को कैबिनेट मंत्री बनाया गया।
‘ढाई-ढाई साल’ के फॉर्मूले का विवाद
सीएम पद न मिलने के तुरंत बाद, कांग्रेस के भीतर यह चर्चा शुरू हुई कि आलाकमान ने दोनों नेताओं के बीच सत्ता साझा करने के लिए एक ‘ढाई-ढाई साल’ का फॉर्मूला तय किया है, जिसके तहत टीएस सिंह देव को पहले कार्यकाल के ढाई साल बाद मुख्यमंत्री बनना था।
- सत्ता हस्तांतरण न होना: पहला ढाई साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद भी (जून 2021 के आसपास) सत्ता हस्तांतरण नहीं हुआ।
- बढ़ता तनाव: इस फॉर्मूले के लागू न होने से दोनों खेमों के बीच तनाव और खींचतान खुलकर सामने आने लगी। टीएस सिंह देव के कई समर्थक दिल्ली में डेरा डाले रहे और आलाकमान से वादे पूरे करने की मांग की।
सार्वजनिक नाराज़गी और इस्तीफा
यह संघर्ष केवल बंद कमरों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि टीएस सिंह देव की ओर से सार्वजनिक रूप से नाराज़गी भी व्यक्त की गई:
- पंचायत विभाग से इस्तीफा (जुलाई 2022): टीएस सिंह देव ने अपने पास मौजूद पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने आरोप लगाया था कि उनके विभाग के फैसलों में बाहरी हस्तक्षेप है और उन्हें काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं दी जा रही है। हालाँकि, वह स्वास्थ्य मंत्री समेत अन्य विभागों में बने रहे।
- सामूहिक बहिष्कार: कुछ मौकों पर टीएस सिंह देव ने कैबिनेट बैठकों या विधानसभा सत्र में शामिल होने से भी इनकार कर दिया, जो उनकी गहरी नाराज़गी का स्पष्ट संकेत था।
समझौता: उपमुख्यमंत्री पद की नियुक्ति
2023 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, कांग्रेस हाईकमान ने इस लंबे संघर्ष को शांत करने के लिए एक बड़ा कदम उठाया:
- उपमुख्यमंत्री पद: जून 2023 में, टीएस सिंह देव को छत्तीसगढ़ का पहला उपमुख्यमंत्री (Deputy CM) नियुक्त किया गया। यह उनके कद को सम्मान देने और दोनों नेताओं के बीच एक समझौता स्थापित करने का प्रयास था।
यह पूरा घटनाक्रम टीएस सिंह देव के करियर का सबसे मुश्किल दौर माना जाता है, क्योंकि उन्हें पार्टी की आंतरिक राजनीति में नेतृत्व के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी, जिसने राज्य सरकार के कामकाज पर भी असर डाला।












