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बजट सत्र में बजट पर चर्चा कब होगी? क्या इस तरह हंगामा लोकतंत्र का अनादर नहीं है?

संसद का मौजूदा बजट सत्र का पहला भाग हंगामे की भेंट चढ़ गया। उम्मीद थी कि होली के बाद बजट सत्र का दूसरा भाग लोकतांत्रिक ढंग से संचालित हो पाएगा। लेकिन फिलवक्त बजट सत्र के दूसरे भाग का हश्र भी पहले भाग जैसा होता दिख रहा है। पिछले कई वर्षों से संसद का सत्र शुरु तो बड़ी गर्मजोशी के साथ होता है मगर खत्म जनता के पैसे की बर्बादी के साथ होता है।

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बजट के पहले सत्र में कांग्रेस समेत विपक्ष के कई दलों ने अडाणी मामले को लेकर संसद का काम ठप किया। तो वहीं दूसरे भाग में विपक्ष अडाणी मामले पर जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) के गठन की मांग को लेकर अड़ा है। तो वहीं सत्ता पक्ष के हाथ भी विपक्ष को घेरने का मुद्दा लग गया है। दरअसल, हाल ही में कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उन्हीं से सत्ता पक्ष विपक्ष पर हमलावर है।राहुल गांधी ने ब्रिटेन में भारत में लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए कहा था कि संसद में उनको बोलने नहीं दिया जाता। इसे लेकर सत्ता पक्ष का कहना है कि राहुल गांधी ने लोकतंत्र के साथ देश का भी अपमान किया है इसलिए उनको क्षमा याचना करना चाहिए जिस पर कांग्रेस का पलटवार है कि विदेशों में राष्ट्रीय मुद्दों पर आलोचना की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री ने की इसलिए वे माफी मांगें।

दोनों तरफ से तलवारें खिंची हुई हैं। सत्ताधारी योद्धा झुकने को राजी हैं और न ही विपक्ष के महारथी। बजट सत्र में बजट पर चर्चा को छोड़कर बाकी सब हो रहा है। मोदी सरकार के इस कार्यकाल का यह अंतिम पूर्ण बजट है। अगले वित्त वर्ष का बजट 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली सरकार द्वारा पेश किया जावेगा।चुनावी वर्ष के मद्देनजर सत्तापक्ष ने बजट को लोक लुभावन बनाने की कोशिश की जबकि विपक्ष ने शुरुआती प्रतिक्रिया में ही उसे जनविरोधी बता दिया था। बजट का विस्तृत अध्ययन करने सत्र के बीच अवकाश भी दिया गया किंतु दूसरा चरण शुरू हुए तीन दिन बीत जाने पर भी इस महत्वपूर्ण विषय पर विचार करने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही।

डॉ. लोहिया आम जनता को मुल्क के मालिकों कहकर संबोधित किया करते थे किंतु आजकल इस संबोधन को हमारे सांसदों ने एक तरह से चुरा लिया है और जनता की जगह वे खुद को देश का मालिक समझ बैठे हैं। तभी तो सदन में हंगामा करते हुए लोकतंत्र का मजाक बनाने के बाद भी वे जनता के बीच जाने से नहीं डरते। ये स्थिति वाकई शोचनीय है। जब सदन को चलना ही नहीं है तब उसके संचालन पर प्रतिदिन करोड़ों का खर्च क्यों किया जाए ये सवाल उठना स्वाभाविक है। विदेश में जाकर लोकतंत्र का अपमान तो बाद की बात है लेकिन हमारे सांसद लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर जिस उद्दंडता और अशालीनता का परिचय दे रहे हैं वह ज्यादा बड़ा अपमान है।संसद में एक घंटे की कार्यवाही पर कितना खर्च होता है। करीब 1.5 करोड़ रुपया यानि हर मिनट की कार्यवाही पर 2.5 लाख रुपया। ऐसे में स्वयं इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि संसद के दोनों सदनों में होने वाले बॉयकाट और हंगामे से जनता का कितना पैसा बर्बाद हो जाता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो संसद में सालभर के तीन सत्रों में छह से सात काम के होते हैं।

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इनमें भी अगर अवकाश और सप्ताहांत के दिनों को निकाल दें तो दो से तीन महीने और कम हो जाते हैं। इस लिहाज से साल भर में वास्तविक काम के दिन 70-80 ही होते हैं, लेकिन इतने दिन भी संसद चल नहीं पाती। 1982 ही एकमात्र ऐसा साल था जब हमारी संसद 80 दिन चल पाई थी। संसदीय आंकड़ों के अनुसार दिसम्बर 2016 के शीत कालीन सत्र के दौरान करीब 92 घंटे व्यवधान की वजह से बर्बाद हो गए थे। इस दौरान करीब 144 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, जिसमें 138 करोड़ रुपये संसद चलाने का खर्च और 6 करोड़ रुपये सांसदों के वेतन, भत्ते और आवास का खर्च शामिल है।पिछले कुछ वर्षों के बजट सत्रों से तुलना की जाए तो आमतौर पर बजट सत्र में बजट पर चर्चा के लिए निर्धारित घंटों के करीब 20 फीसद या 33 घंटे बहस होती है। वर्ष 2018 के बजट सत्र में कुल 21 प्रतिशत (लोकसभा) और 31 प्रतिशत (राज्यसभा) में काम हुआ।

आंकड़ों के मुताबिक 2010 का शीतकालीन सत्र प्रोडक्टिविटी के लिहाज से सबसे खराब सत्र रहा था। इसके बाद 2013 और 2016 के संसद सत्रों का नंबर आता है। 2010-2014 के बीच संसद के 900 घंटे बर्बाद हुए, तो सोचिए कितना पैसा बर्बाद हुआ होगा।

इस सब पर विडंबना यह है कि विपक्ष हो या फिर सरकार, किसी को भी चिंता नहीं है कि देश की जनता का पैसा किस तरह बर्बाद किए जा रहे हैं। जब यूपीए की सरकार थी तब बीजेपी ने संसद की कार्यवाही  चलने नहीं दी और अब वहीं काम कांग्रेस और विपक्ष कर रहा है। प्रश्न यही है कि देश की जनता की इतनी फिक्र करने वाली राजनीतिक पार्टियां इतनी आसानी से जनता का पैसा कैसे बर्बाद कर देती हैं? संसद में हंगामा और उसे ठप कर देना तो हमारे देश के राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली का हिस्सा और परंपरा बन गया है।सदन में जारी हंगामे को देखकर अब जनता भी परेशान हो चुकी है और वह चाहती है कि उनका पैसा बर्बाद ना हो और सभी पार्टियों के नेता सदन की कार्रवाई में शांति से भाग लें। सदन अपने नियमों और गरिमा के साथ चले जिससे उसे देखने वाली जनता का नेताओं पर विश्वास बना रहें।

सदन में हंगामा करने से नेता अपनी खुद की प्रतिष्ठा खो रहे हैं। तमाम दलों के नेता वेल तक पहुंच जा रहे हैं और स्पीकर पर पेपर फेंकते हैं। सदन में उपस्थित सभी नेताओं को माननीय कहकर पुकारा जाता है लेकिन सदन में हो रहे बर्ताव को देखते हुए क्या उन्हें माननीय कहना ठीक है?

माननीयों के इसी आचरण के चलते आम जनता अक्सर संसद की कार्यवाही और गंभीरता से ध्यान नहीं देती। लेकिन, यह एक बड़ा मुद्दा है। जनता को अब सोचने की जरूरत है कि उनके चुने हुए नेता उनकी बातें, समस्या का हल निकाल पर रहे हैं या नहीं। जनता के चुने हुए नेता उनकी बातें संसद में उठा पा रहे हैं या नहीं। संसद का कोई भी सत्र होगा, वो आम आदमी के लिए काफी महत्वपूर्ण होता है। यहीं पर आम जनता के खाने से लेकर जिंदगी जीने तक सभी बातों का मोल लगाया जाता है।सरकार द्वारा पेश किए गए विधेयकों पर विपक्षी दलों का हंगामा करना आम जनता के लिए अच्छी बात नहीं है। संसद में आम जनता की भलाई के लिए फैसले लिए जाते हैं। लेकिन हर बार विपक्षी दलों को का हंगामा करते हुए कार्रवाई को स्थगित करना आम जनता के लिए ही नुकसानदायक साबित हो रहा है। इसलिए अब जनता को ही बड़े सोच विचार करते हुए अपने नेता का चुनाव करना होगा ताकि उनकी जेब और ढीली ना हो।

अडाणी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच समिति बना दिए जाने के बाद अडानी मामले में जेपीसी गठन की मांग का कोई औचित्य नहीं रह गया है। दूसरी तरफ राहुल गांधी भी माफी मांगेंगे इसकी संभावना न के बराबर है। ऐसे में देश की जनता के लिए चिंता का विषय है कि उससे जुड़ी समस्याओं एवं राष्ट्रीय महत्व के शेष विषयों पर विचार इस सत्र में होगा भी या नहीं? संसद में हर रोज होने वाले हंगामे से देश के ज्यादातर लोग निराश हैं। सियासी बयानबाजियों के बीच आखिर संसद में काम कब होगा, कोई नहीं जानता।

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