कौन्दकेरा में नागवंशी परिवार का जातरा का आयोजन
कौन्दकेरा में नागवंशी परिवार का जातरा का आयोजन
नागवंशी परिवार द्वारा प्रकृति और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने पीढ़ी दर पीढ़ी देवस्थल पर होता है जातरा का आयोजन
उज्जवल राम सिन्हा/ ब्यूरो रिपोर्टर/गरियाबंद : ग्राम पंचायत कौन्दकेरा गरियाबंद जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर स्थित में 3 अप्रैल से 5 अप्रैल तक आमद गोंड आदिवासी नागवंशी ;मरईद्ध परिवार का 3 दिवसीय जातरा कार्यक्रम का आयोजन किया गया है । इसमें एक ही गोत्र ;परिवारद्ध के लगभग 10 से 12 हजार लोग देवस्थल में होने वाले इस जातरा कार्यक्रम के साक्षी बनकर आस पास के गांव और राज्यो में रहने वाले सभी नागवंशी परिवार का इस कार्यक्रम में शामिल होते है।
समाज के द्वारा पूर्वजों को याद करने और उनकी पूजा करने की अनूठी परंपरा का निर्वहन आमद गोंड परिवार के द्वारा सैकड़ों सालों से निर्विघ्न लगातार नागवंशी परिवार के द्वारा जातरा कार्यक्रम का आयोजन 30 साल को एक पीढ़ी के तौर मान कर पीढ़ी दर पीढ़ी किया जाता था । 30 साल का अंतराल काफी होने के चलते इसे अब कम करके 15 साल कर दिया गया है ।ताकि नई पीढ़ी इस परंपरा को अच्छे से जान सके और भविष्य में इसका आयोजन कर सके । जातरा कार्यक्रम में मुख्य रूप से देवपूजा ;पूर्वजोंद्ध और बूढ़ा देव की पूजा की जाती है । इस पूरे कार्यक्रम का आयोजन देवस्थल अर्थात माटी घर में होता है जो कि कौन्दकेरा में स्थित पूरे नागवंशी परिवार का एक मात्र देव स्थल है । पूजा की शुरुआत से ही वनों से मिलने वाले वनोपज का भोग चढ़ा कर करते है देव पूजा ।आमद गोंड आदिवासी नागवंशी : मरईद्ध समाज जातरा में होने वाली पूजा की शुरुआत अपने बूढ़ा देव को महुआ का होम देकर करते है । चाहे जातरा का आयोजन हो या नवा खाई का नागवंशी समाज हर कार्यक्रम में अपने बूढ़ा देव और पितरों को वनोपज की भेंट के बाद ही शुरू करते है । चाहे वो धान हो या महुआ का फूल दोनो को ही भोग चढ़ाने के बाद शुरू करते है ।इस समाज में मान्यता है अग्नि में प्रसाद की आहुति देते है और उससे निकलने वाले धुंए का बूढ़ा देव को होम दिया जाता है जिसके बाद भोग उन तक पहुंचता है । 21 वी सदी में नागवंशी ;मरईद्ध आदिवासी समाज की अनूठी परंपरा दशकों पुराने दिनों की याद दिलाती है ।
पूरे जातरा कार्यक्रम में केवल समाज के लोग ही देवस्थल पर मौजूद रहते है उनके अलावा किसी और को उपस्थिति पूरी तरह निषेध रहती है 21वीं सदी में यह प्रथा आज से 50 से 60 साल पुराने दिनों की याद दिलाता है जो आदिवासियों की अनूठी परंपरा में शामिल है ।