
Ambikapur News : समाजसेविका, कवयित्री डॉ0 पुष्पा सिंह के संयोजन में काव्यगोष्ठी का हुआ आयोजन…………..
‘दर्द कैसा भी हो, दवा अपने हाथ है, बेफ़िक्र, बिंदास हूं, मां की दुआ साथ है’
समाजसेविका, कवयित्री डॉ0 पुष्पा सिंह के संयोजन में काव्यगोष्ठी का हुआ आयोजन…………..
P.S.YADAV/ब्यूरो चीफ/सरगुजा// कवयित्री और समाजसेविका डॉ0 पुष्पा सिंह के संयोजन में बिरेन्द्रप्रभा होटल में काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ गीतकार कृष्णकांत पाठक ने मां सरस्वती की वंदना- हे स्वरेश्वरी, स्वरभाषिणी, मां स्वर प्रकाश-प्रकाशिनी से किया। वीर रस के कवि अम्बरीश कश्यप ने अपनी ओजमयी देशभक्तिपूर्ण रचना से खू़ब वाहवाही बटोरी- भगत सिंह की हिम्मत हैं हम, शेखर की कुर्बानी हैं, गांधी और सुभाष के जैसे हम विवेक की वाणी हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, संत, योगी की हम संतान हैं। एक बार देखो हमें- हम ही हिन्दुस्तान हैं। आचार्य दिग्विजय सिंह तोमर ने भगवान् शिव पर स्वरचित उत्तम स्तुति- ऊं आदि अनूपम् प्रदीप्तम् पुनीतम् निरीह निरूपम् निसर्ग स्वरूपम्- की प्रस्तुति देकर वातावरण को जहां शिवमय बनाया, वहीं डॉ0 सुधीर पाठक के गीत- सरगुजा गाजमगूजा ने गोष्ठी में समां बांध दिया। बेटियों पर विनोद हर्ष की कविता अत्यंत प्रेरणास्पद रही- युगों-युगों के तप का परिणाम बेटियां, हर किसी को नहीं देते हैं राम बेटियां।
राजेन्द्र रंजन गायकवाड़ एक श्रेष्ठ कवि होने के साथ ही केन्द्रीय जेल अधीक्षक का दायित्व भी बड़ी कुशलता से निभा रहे हैं। उनके लिए जेल और निजी जिंद़गी एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों में कोई भेद भी नहीं है। उनकी कविता ने इसी सत्य को रेखांकित भी किया- रात ढले पूरा शहर सो जाता है, मेरे अंदर मेरा जेल जागता है। मैं और मेरा जेल एक-दूसरे के लिए जीते हैं। कुछ देर मैं जेल में रहता हूं पर मेरे अंदर जेल सदा रहता है। राजेश पाण्डेय ने- उपवन में भी काशीवासी होते हैं, फूलों में भी संन्यासी होते हैं- जैसी उम्दा रचना की प्रस्तुति देकर सर्वत्र प्रेम, शांति की मंगलकामना अपने दोहे में की- सरस-सलिल बहती रहे, प्रेम-नदी चहुंओर। अमन, शांति सौरभ बने, हो सुरभित हर ओर। श्रृंगार के जाने-माने हस्ताक्षर संतोषदास सरल ने अपने दिल की पीड़ा का इज़हार करते हुए शानदार गीत की प्रस्तुति दी- मुस्कुराके मुझे ग़म छुपाना भी है, दर्द छलका तो सबकुछ बिखर जाएगा। दिलजलों की तड़प दूर तक जो गई, ज़र्रा-ज़र्रा न जाने किधर जाएगा। कवयित्री मीना वर्मा के गीत में कायर बेटे द्वारा मां की निरंतर उपेक्षा की करुणाजनक तस्वीर पेश की गई- जिस माता ने कोख में अपनी नौ-दस माह संभाला था, छाती से चिपका कर अपना अमृत-सा दूध पिलाया था, खुद सोकर गीली कथरी में चादर उसे ओढ़ाया था, उस कायर बेटे ने मां को वृद्धाश्रम पहुंचाया था।
चिंता का विषय है कि आज भी समाज में नारियों की उपेक्षा हो रही है। रीति-रिवाज़ों के नाम पर उनके वजूद, उनकी इच्छाओं का दमन व हनन किया जाना आम बात है। उन्हें मात्र भोग की वस्तु समझी जाती है। नारी की इसी विभेद और विषमताजन्य पीड़ाओं और दशाओं को कवयित्री मंशा शुक्ला ने सार्थक स्वर प्रदान किया- नहीं है शून्य भावनाओं से हृदय, मन-पटल मेरा, ममता, त्याग, समर्पण की बहती आबाद दरिया हूं। हां, इंसान हूं मैं भी, नहीं बेजान गुड़िया हूं। डॉ0 पुष्पा सिंह ने- जो अपने को ठुकराते हैं, गै़रों से ठोकरें खाते हैं, उन रस्तों पे नहीं चलती जो आसान होते हैं, इतनी-सी कृपा कर देना प्रभु ये जीवन किसी का काम आ जाए, आईने से ऐसी कुछ बात हो गई, मुझसे ही मेरी आज मुलाक़ात हो गई, जीवन में मूल्य नहीं तो, जीवन का कोई मूल्य नहीं और कांच के पीछे भागना फ़ितरत है इंसान की, नायाब हीरा है ख़ुद वो, ज़रूरत है पहचान की -जैसी दिलकश कविताओं के अलावा मां पर सुनाई गई रचना- दर्द कैसा भी हो, दवा अपने हाथ है, बेफिक्र, बिंदास हूं, मां की दुआ साथ है- ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध और भावविभोर कर दिया। अंत में, दोहा छंद के सिद्धहस्त कवि मुकुन्दलाल साहू ने अपने दोहों- गर्मी में गरमा गई जीवन की सब राह, तन में ताक़त है नहीं, ना मन में उत्साह, जीवनदायी ग्रीष्म ही, बना हुआ है काल, भीषण गर्मी से हुए सभी जीव बेहाल- के द्वारा कार्यक्रम का यादगार समापन किया। गोष्ठी का संचालन राजेश पाण्डेय और आभार डॉ0 पुष्पा सिंह ने जताया। इस दौरान मंजू और रोशनी पाठक भी उपस्थित रहीं।