
‘प्रेमचंद-से सफल चितेरे सदियों में कुछ होते हैं, जनमानस में मानवता के बीज सहज जो बोते हैं’
उपन्यास सम्राट् प्रेमचंद की जयंती पर तुलसी साहित्य समिति की सरस काव्यगोष्ठी
अम्बिकापुर। कथा और उपन्यास सम्राट् पे्रमचंद की जयंती पर तुलसी साहित्य समिति द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार व पूर्व बीईओ एसपी जायसवाल की अध्यक्षता में स्थानीय केशरवानी भवन में सरस काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पूर्व एडीआईएस ब्रह्माशंकर सिंह और विशिष्ट अतिथि शायर-ए-शहर यादव विकास, मीना वर्मा व पूर्व प्राचार्य बीडीलाल थे।
कार्यक्रम का शुभारंभ मां वीणापाणि व प्रेमचंद के छायाचित्रों के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। गीता मर्मज्ञ, विद्वान ब्रह्माशंकर सिंह ने कहा कि हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद सूर और तुलसी की तरह विख्यात हैं। उनका जीवन संघर्षों और पीड़ाओं की अकथ कहानी है। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी के पास लमही नामक ग्राम में हुआ। 8 वर्ष की आयु में उनकी माता का निधन हो जाने से उन्हें वात्सल्य व ममता-सुख से वंचित होना पड़ा। 1898 में मैट्रिक पास करने के बाद वे शिक्षक बने और बीए पास होने के बाद उन्हें शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर बनाया गया। सन् 1921 में गांधीजी के आव्हान पर उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने माधुरी, मर्यादा, हंस आदि पत्रिकाओं का कुशल संपादन किया। साथ ही निरन्तर साहित्य सृजन करते हुए गद्य की उपन्यास, कहानी आदि विभिन्न विधाओं में विश्वस्तरीय रचनाएं लिखीं। 8 अक्टूबर 1936 में इस महान साहित्यकार का निधन हो गया। कविवर एसपी जायसवाल ने बताया कि मात्र तेरह वर्ष की आयु में प्रेमचंद ने लेखन प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने कुल पन्द्रह उपन्यास, तीन सौ से अधिक कहानियां, तीन नाटक, दस अनुवाद, सात बाल पुस्तकें तथा हजारों पेज के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना कर हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की है। उनकी रचनाओं में समाज सुधार और राष्ट्रीयता की भावना प्रमुख रूप से दिखाई देती है।
काव्यगोष्ठी में कवयित्री माधुरी जायसवाल ने प्रेमचंद के विषय में सही कहा कि- सूरज की तरह चमकते रहे, प्रेमचंद था जिनका नाम, कहलाए क़लम के जादूगर और रौशन हुआ वो लमही ग्राम। कवयित्री आशा पाण्डेय ने अपने दोहों में उन्हें भारतीय नवचेतना का का सूत्रधार बताया- रचा आपने देश में, एक नया इतिहास। जगा दिया नवचेतना, जागा फिर विश्वास। बड़ा कठिन जीवन रहा, मानी कभी न हार। बने सभी की प्रेरणा, लेखन था आधार। प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ के प्रसिद्ध पात्रों होरी, धनिया व हलकू का ख़ास ज़िक्र करते हुए तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त भीषण निर्धनता की पीड़ा, करुणा व आक्रोश को अभिनेत्री व कवयित्री अर्चना पाठक ने अपने उत्कृष्ट दोहे में मुखरित किया- होरी, धनिया आज भी, हैं हम सबके बीच। सहता हलकू है व्यथा, जीता मुट्ठी भींच। कविवर श्यामबिहारी पाण्डेय ने अपने उम्दा काव्य में प्रेमचंद को महान मानवतावादी साहित्यकार बताया- प्रेमचंद-से सफल चितेरे सदियों में कुछ होते हैं। जनमानस में मानवता के बीज सहज जो बोते हैं। होरी, धनिया, गोबर वैसे हर समाज में रहते हैं। प्रेमचंद उनकी पीड़ा में काग़ज़-क़लम भिगोते हैं।
काव्य-संध्या में वरिष्ठ कवि उमाकांत पाण्डेय की ग़ज़ल- ग़म न कर फिर मिलेंगे, सहारे बहुत हैं, अभी ज़िंदगी के इशारे बहुत हैं, चंद्रभूषण मिश्र ‘मृगांक’ की कविता- लम्हा-लम्हा तेरी तस्वीर सामने आती है, मेरे जीने का अंदाज़ बदल जाता है, वरिष्ठ कवयित्री मीना वर्मा की रचना- जिं़दगी के सफ़र में कठिन है डगर, आंख खुलने से पहले क्या सो जाएगा, अजय श्रीवास्तव का कलाम- कुछ इस तरह से खिले ये जीवन जो दीन हैं उन्हें गले लगाओ, कभी न अन्याय के पथ पर चलना, सदा सभी के संग न्याय करना और ब्रह्माशंकर सिंह की कविता- रे मन, कहीं चल, कहीं दूर चल। क्षितिज के उस पार, कहीं एकांत में, जहां मैं रहूं, मेरी तनहाई रहे। प्रख्यात कवयित्री पूनम दुबे ने गीत- सांची-सांची प्रीत मितवा, होंठों पे है गीत मितवा, कितनी है प्यारी मुलाका़तें, क्या मैं कहूं साथिया- सुनाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया।
सावन माह हो और शिव की चर्चा न हो तो सब बेमानी लगता है। कवयित्री सारिका मिश्रा के भोजपुरी गीत- सावन महीना बड़ा पावन, अति मनभावन हो, भोले बाबा के जलबा चढ़ाइब, सुनर फल पाइब हो और गीतकार मंशा शुक्ला के गीत- देखा नहीं जगत् में तुम-जैसा कोई दानी, महिमा तेरी हे भोले, है अकथ कहानी- ने गोष्ठी में मिठास घोल दी। कार्यक्रम में हास्य रस की कविताएं भी पेश की गईं। कवयित्री गीता द्विवेदी का हास्यपरक गीत- बीच शहर ससुराल है, सासु मां बेहाल है, जाओ देखो बालमा, कैसा उनका हाल है? और कविवर एसपी जायसवाल की हास्य रस की कविता- घर की काली कुतिया माता बनी, एक नहीं छै-छै जनी और सरगुजिहा रचना- का कहबे-का कहबे संगी मोर बिलोती कर दाम का कहिबे- ने सबको हंसाकर लोटपोट कर दिया। वरिष्ठ कवि बीडीलाल ने सरगुजा की बोली की महिमा का सरगुजिहा में सुंदर बखान किया- सरगुजा भुइंया केर सरगुजिहा बोली, गुरतुर है अड़बड़ मिसरी केर डेली। मोर संग अपना ले संगी, मोर संग अपना। मोर संग गा ले संगी, मोर संगे गा। शायर-ए-शहर यादव विकास ने दिलकश ग़ज़ल की प्रस्तुति दी- हाल दिल का पता नहीं होता, आपके साथ चला नहीं होता। कौन कहता है के इज़हार करो, आंखों-आंखों से क्या नहीं होता? बस हमारा-तुम्हारा साथ रहे मुश्किलों का पता नहीं होता। कवयित्री अंजू पाण्डेय ने देश और समाज में आ रहे बदलाओं का स्वर बुलंद किया- बात है अपनी स्वर्ण-धरा की, निडरता से सब पलते थे। रक्तरंजित न एक जगह थी, भयमुक्त हो सब चलते थे। अब धरा का दृश्य है बदला, धर्मों में ख़ुद को बांट रहे-मानव-मानव को काट रहे! इनके अलावा कार्यक्रम को कवयित्री पूर्णिमा पटेल और पूनम पाण्डेय ने भी संबोधित किया। अंत में, संस्था के ऊर्जावान अध्यक्ष मुकुंदलाल साहू ने अपने प्रेरणादायी दोहे- जीवन है संघर्ष का, जग में दूजा नाम, ध्यान लगाकर कीजिए, अपने सारे काम-से काव्यगोष्ठी का यादगार समापन किया। कार्यक्रम का काव्यमय संचालन कवयित्री अर्चना पाठक और आभार उमाकांत पाण्डेय ने जताया। इस अवसर पर केशरवानी समाज के मनीलाल गुप्ता, लीलादेवी, शाश्वत, संकल्प, सारांश जायसवाल व लगनदास सहित अनेक काव्यप्रेमी उपस्थित थे।