
अब अंकरस के दिन नंदागे…
मानसून आये के पहिली जब चिलकत गरमी म बरसा होय अउ किसान मन नांगर फांदय, खेत ल एकसरी अउ कभू दू सरी घलो जोत डारंय त वोला अंकरस के नांगर कहंय।
अब बेरा के संग खेती-किसानी के तौर-तरीका बदलगे। खुर्रा बोनी, अंकरस बोनी लगभग नंदागे। नांगर जोतत किसान के ददरिया के सर्रई अउ कमइलीन के वोला झोंक के जुवाब देवई। सब तइहा के बात होगे। अब तो टेक्टर के धुंगिया उगलत भकभकी भाखा के सोर के छोंड़ खेत म अउ कुछु नइ सुनावय। हमर संस्कृति के सोर-संदेश टेक्टर अउ आने वैज्ञानिक आविष्कार के धुंगिया म नंदागे।
मशीनी आविष्कार अउ औद्योगीकरण के सबले जादा नुकसान पर्यावरण के क्षेत्र म परत हे। जंगल-झाड़ी के रकबा दिन के दिन कम होवत जावत हे। एकर असर बरखा के अन्ते-तन्ते रूप में घलो देखे बर मिलत हे। जब पानी के जरूरत होथे, त रगरगा के घाम उथे, अउ जब घाम के आसरा लामे रहिथे त कति मेर ले ननजतिया बादर आके दमोर देथे। किसान बपरा मन बर दुब्बर बर दू असाढ़ कस हो जाथे। त बताव भला अइसना म अंकरस के नांगर अउ खुर्रा बोनी के खेती कइसे देखे ले मिलही?
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