
दिल्ली हाईकोर्ट का अहम फैसला: ‘शारीरिक संबंध’ शब्द POCSO साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं, आरोपी बरी
दिल्ली हाईकोर्ट ने POCSO केस में आरोपी को बरी किया। जस्टिस मनोज ओहरी ने कहा कि बिना सहायक सबूत के केवल 'शारीरिक संबंध' शब्द का इस्तेमाल रेप/यौन उत्पीड़न साबित करने के लिए काफी नहीं है। जानें कोर्ट ने क्यों निचली अदालत की भूमिका पर सवाल उठाए।
दिल्ली हाईकोर्ट का अहम फैसला: ‘शारीरिक संबंध’ शब्द बलात्कार साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं; POCSO आरोपी बरी
नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक पॉक्सो (POCSO) मामले में अहम फैसला सुनाते हुए आरोपी व्यक्ति को बरी कर दिया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बिना किसी सहायक सबूत या स्पष्ट गवाही के केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल बलात्कार या गंभीर यौन उत्पीड़न को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
जस्टिस मनोज कुमार ओहरी की एकल पीठ ने आरोपी की उस याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें उसने आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 (गंभीर यौन हमला) के तहत अपनी दोषसिद्धि और 10 साल के कठोर कारावास की सजा को चुनौती दी थी। अदालत ने पाया कि सजा टिकने योग्य नहीं है और आरोपी को बरी कर दिया गया।
यह मामला 2023 में दर्ज किया गया था। पीड़िता ने आरोप लगाया था कि 2014 में उसके चचेरे भाई (आरोपी) ने उसे शादी का झांसा देकर लगभग एक साल से अधिक समय तक ‘शारीरिक संबंध’ बनाए।
जस्टिस ओहरी ने इस मामले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा:
- शब्द की अस्पष्टता: “मौजूदा मामले में, पीड़िता या उसके माता-पिता की गवाही से पता चलता है कि बार-बार ‘शारीरिक संबंध’ स्थापित होने की बात कही गई है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का क्या अर्थ था। कथित कृत्य का कोई और विवरण नहीं दिया गया है।”
- कानूनी परिभाषा का अभाव: कोर्ट ने यह भी नोट किया कि “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल या परिभाषा न तो आईपीसी में है और न ही POCSO एक्ट में। यह स्पष्ट नहीं किया गया कि पीड़िता के संदर्भ में इस शब्द का वास्तविक अर्थ क्या था और क्या यह यौन भेद्य हमले के आवश्यक तत्वों को पूरा करता है।
- सबूत की कमी: अदालत ने कहा कि “बिना किसी सहायक सबूत के केवल ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि अभियोजन पक्ष ने अपराध को संदेह से परे सिद्ध किया है। इस तरह की अस्पष्ट व्याख्या के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
न्यायालय ने अभियोजन पक्ष और निचली अदालत के ढीले रवैये पर भी गंभीर टिप्पणी की:
- वैधानिक कर्तव्य: कोर्ट ने कहा कि यदि बाल गवाह की गवाही में आवश्यक जानकारी नहीं है, तो कोर्ट का यह वैधानिक कर्तव्य है कि वह प्रासंगिक तथ्यों का उचित प्रमाण प्राप्त करने या पता लगाने के लिए प्रश्न पूछे।
- मुकदमे में सहभागी भूमिका: फैसले में कहा गया कि यदि अभियोजन पक्ष अपेक्षित ढंग से अपना काम नहीं कर रहा है, तो कोर्ट मूकदर्शक नहीं बने रह सकते और उन्हें मुकदमे में सहभागी भूमिका निभानी होगी, ताकि न्याय सुनिश्चित हो सके और कमजोर गवाहों पर प्रक्रिया का बोझ न पड़े।
अदालत ने कहा कि संवेदनशील परिस्थितियों में साक्ष्यों की सटीकता और विश्वसनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, और न्याय सुनिश्चित करने के लिए फॉरेंसिक और भौतिक सबूतों की भूमिका अहम है। इस फैसले के बाद आरोपी को पॉक्सो और आईपीसी की धारा 376 के आरोपों से बरी कर दिया गया।