
राजिम मेले का भाजपाईकरण: आस्था और संस्कृति पर राजनीति का वर्चस्व
राजिम मेले का भाजपाईकरण: आस्था और संस्कृति पर राजनीति का वर्चस्व
छत्तीसगढ़िया संस्कृति का अपमान, धार्मिक मान्यताओं के विपरीत बना महज राजनीतिक इवेंट
रायपुर। आशीष सिन्हा। 27 फरवरी 2025। छत्तीसगढ़ के धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों की समृद्ध परंपरा में राजिम पुन्नी मेला का विशेष स्थान है। यह आयोजन राजिम त्रिवेणी संगम में हर साल माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक चलता है। हजारों श्रद्धालु इस आयोजन में भाग लेते हैं और इसे छत्तीसगढ़ की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान से जोड़कर देखते हैं। लेकिन इस बार राजिम मेला अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान खोकर केवल एक राजनीतिक प्रचार अभियान में तब्दील हो गया।
प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने आरोप लगाया है कि इस बार राजिम पुन्नी मेला न होकर “मोदी-साय इवेंट” बनकर रह गया। पहले यह मेला सभी के लिए खुला, अराजनीतिक और समावेशी होता था, लेकिन इस बार इसे भारतीय जनता पार्टी के प्रचार तंत्र में बदल दिया गया। स्थानीय नेताओं और जनप्रतिनिधियों को किनारे कर केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की तस्वीरें और नाम आयोजन में प्रमुख रूप से प्रदर्शित किए गए।
आस्था से अधिक राजनीति, छत्तीसगढ़िया संस्कृति की अनदेखी
राजिम पुन्नी मेला छत्तीसगढ़ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक रहा है। यह आस्था, परंपरा और भक्ति का केंद्र है, लेकिन इस बार के आयोजन में इसे पूरी तरह से एक राजनीतिक आयोजन में बदल दिया गया।
1. सांस्कृतिक अपमान:
मेले में छत्तीसगढ़ी कलाकारों को पूरी तरह उपेक्षित किया गया।
पारंपरिक छत्तीसगढ़ी कला, नाचा-गम्मत, पंडवानी और अन्य लोक कलाओं को प्राथमिकता नहीं दी गई।
बाहरी कलाकारों को बुलाकर भारी भरकम राशि खर्च की गई।
2. स्थानीय जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा:
पहले के आयोजनों में सभी दलों के विधायकों, सांसदों और स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों को समान रूप से अवसर दिया जाता था।
इस बार के आयोजन में सिर्फ भाजपा नेताओं को स्थान मिला, जबकि स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया।
3. अफसरशाही का वर्चस्व:
आयोजन स्थल पर कई गैर-जरूरी अवरोधक (बेरीकेड्स) लगाए गए जिससे श्रद्धालुओं को लंबी दूरी पैदल चलने पर मजबूर होना पड़ा।
प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी मनमानी चलाई और आयोजकों को परेशान किया।
पूरे मेले के दौरान ऑडिटोरियम को बंद रखा गया, जिससे सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सही मंच नहीं मिला।
4. धार्मिक भावनाओं की अवहेलना:
मेले का नाम बदलकर “राजिम कुंभ कल्प” कर दिया गया, जिससे स्थानीय संस्कृति और धार्मिक परंपराओं को ठेस पहुंची।
छत्तीसगढ़ी परंपराओं को दरकिनार कर हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा दिया गया।
बिचौलियों और ठेकेदारों का बोलबाला, आम जनता से लूट
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने आरोप लगाया कि इस बार के आयोजन में बिचौलिए और कमीशनखोरों को खुली छूट दी गई।
1. अत्यधिक शुल्क वसूली:
पार्किंग शुल्क के नाम पर प्रति वाहन 50-50 रुपये वसूले गए, जो पहले के वर्षों की तुलना में कई गुना अधिक था।
खाद्य और पेय पदार्थों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी कर दी गई।
2. आयोजन का निजीकरण:
पूरे आयोजन को एक प्राइवेट इवेंट कंपनी को सौंप दिया गया, जिससे स्थानीय व्यापारियों और छोटे दुकानदारों को कोई लाभ नहीं मिला।
आयोजन का पूरा बजट और फंडिंग चुनिंदा ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने में खर्च कर दिया गया।
3. पारदर्शिता की कमी:
सरकार ने इस आयोजन में कितनी राशि खर्च की, इसका कोई आधिकारिक ब्यौरा नहीं दिया गया।
मेला स्थल पर अनियमितताएं और अव्यवस्थाएं साफ तौर पर देखी गईं।
छत्तीसगढ़ की अस्मिता पर हमला, स्थानीय लोगों की आस्था से खिलवाड़
राजिम मेला सदियों से छत्तीसगढ़ी अस्मिता और सांस्कृतिक गौरव का केंद्र रहा है, लेकिन इस बार भाजपा सरकार ने इसे अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया।
पहले यह मेला जनता और संतों का होता था, अब भाजपा नेताओं का बन गया।
पहले यहां छत्तीसगढ़ की संस्कृति झलकती थी, अब केवल भाजपा का प्रचार दिखता है।
पहले यहां स्थानीय प्रतिभाओं को बढ़ावा दिया जाता था, अब बाहरी ठेकेदारों और कलाकारों को प्राथमिकता दी जा रही है।
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि यह मेला छत्तीसगढ़िया अस्मिता और संस्कृति का अपमान है। सरकार को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए और स्थानीय परंपराओं को बचाने के लिए कदम उठाने चाहिए।
जनता के आक्रोश को नज़रअंदाज करना भाजपा सरकार को पड़ेगा भारी
राजिम मेले में स्थानीय संस्कृति की अनदेखी और व्यावसायीकरण से जनता में गहरा आक्रोश है। जनता को धर्म और आस्था के नाम पर राजनीतिक प्रचार से ठगा नहीं जा सकता। भाजपा सरकार को यह समझना होगा कि धार्मिक आयोजन राजनीति से ऊपर होते हैं और इन्हें जनता के विश्वास और परंपराओं के अनुरूप चलाना चाहिए।
अगर भाजपा सरकार ने अपनी नीति नहीं बदली और आस्था पर राजनीति थोपने की कोशिश जारी रखी, तो जनता 2028 के चुनाव में इसका जवाब जरूर देगी।