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वैश्विक रैंकिंग, अकादमिक स्वतंत्रता और भारतीय विश्वविद्यालयों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च रैंकिंग : प्रमोद रंजन

वैश्विक रैंकिंग, अकादमिक स्वतंत्रता और भारतीय विश्वविद्यालयों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च रैंकिंग : प्रमोद रंजन

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अप्रैल, 2024 में भारतीय विश्वविद्यालयों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च रैंकिंग की चर्चा रही। मीडिया ने इसका उत्सव मनाया। लेकिन स्थिति इसके विपरीत है। वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिग में अच्छा स्थान मिलने की खबरें, कुछ संस्थानों को इक्का-दुक्का विषयों में मिले रैंक के आधार पर चुनिंदा ढंग से प्रकाशित की गईं थीं। वास्तविकता यह है कि हाल के वर्षों में हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत गिर गया है। इस साल भी यह गिरवाट जारी रही है।

वैश्विक स्तर पर विश्वविद्यालयों की रैंकिंग करने वाली दो प्रमुख एजेंसियां हैं। इनमें से एक है ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’, जो लंदन स्थित निजी एजेंसी ‘क्वाक्वेरेली साइमंड्स’ (क्यूएस) द्वारा की जाती है। इसे 2004 में ‘क्वाक्वेरेली साइमंड्स’ और प्रतिष्ठित पत्रिका ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ ने मिलकर शुरू किया था। उस समय इसे “टाइम्स हायर एजुकेशन-क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग” कहा जाता था। 2009 में ये कंपनियां अलग हो गईं और अपनी-अपनी रैंकिंग बनाने लगीं। क्वाक्वेरेली साइमंड्स ने ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ बनाना जारी रखा, जबकि टाइम्स हायर एजुकेशन ने ‘टाइम्स यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ बनानी शुरू की।

इन दोनों संस्थाओं द्वारा की गई रैंकिंग की चर्चा दुनिया भर में होती है। हालांकि रैंकिंग केवल एक मापदंड है। यह शिक्षा की वास्तविक गुणवत्ता की संकेतक नहीं है। इन रैंकिंग की प्रणालियों पर दुनिया भर में सवाल उठते रहे हैं। लेकिन यह तो है कि उच्च रैंकिंग वाले विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए रोजगार की बेहतर संभावनाएं उपलब्ध होती हैं, और विश्वविद्यालयों को मिलने वाले कई किस्म के वित्तीय अनुदानों और शोध-संबंधी समझौतों पर इसका असर पड़ता है।

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रैंकिंग के लिए संबंधित विश्वविद्यालय को एजेंसी के पास अपने आंकड़े भेजने होते हैं, जिसका सत्यापन वे विभिन्न प्रणालियों से करती हैं। पहले कम ही भारतीय विश्वविद्यालय रैंकिंग के लिए अपने आंकड़े भेजते थे; लेकिन इधर के वर्षों में आंकड़े भेजने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी है। दरअसल, सरकार की दिलचस्पी हालत को ठीक करने की बजाय ऐसे आंकड़े पेश करने में है, जिससे हालत को बेहतर दिखाया जा सके।

पिछले महीने जिस रैंकिंग की चर्चा रही, वह क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग (क्यूएस वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग) है। भारतीय मीडिया में प्रकाशित खबरों में बताया गया इस रैंकिंग के अनुसार भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति के बेहतर हो रही है और हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के चोटी के विश्वविद्यालयों में शरीक हो गए हैं।

देश में शिक्षा का स्तर ऊंचा हाेने की खबर से किसे खुशी नहीं होगी? लेकिन दुःखद है कि मीडिया संस्थानों ने न सिर्फ रैंकिंग के आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर सिर्फ चुनिंदा अंशों को प्रकाशित किया है, बल्कि उनकी भ्रामक व्याख्या भी की है।

मसलन, सभी अखबारों ने लिखा है कि “रैंकिंग में बीते वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय विश्‍वविद्यालयों की सहभागिता 19.4 प्रतिशत अधिक रही है।” गोया, यह शिक्षा में किसी प्रगति का सूचक हो। जबकि इसका आशय सिर्फ इतना है कि पहले की तुलना में अधिक विश्वविद्यालयों ने रैंकिंग करने वाली ऐजेंसी को अपने आंकड़े दिए हैं। यह कोई ऐसी उल्लेखनीय बात नहीं है, जिसे किसी समाचार में प्रमुखता से जगह दी जानी चाहिए। खबर इस पर केंद्रित होनी चाहिए थी कि भारतीय विश्वविद्यालयों का समग्र प्रदर्शन बढ़ा है या घटा है?

अखबारों में इस संबंध में भारत के शिक्षा मंत्रालय का बयान भी प्रकाशित हुआ, जिसमें मंत्रालय ने कहा कि “इन विशिष्टताओं को हासिल कर भारत शिक्षा जगत के वैश्विक मानचित्र पर स्थापित हो गया तथा इसके भारत के सभी उच्च शिक्षा संस्थान बधाई के पात्र हैं।” शिक्षा मंत्री के बयान के दो सप्ताह बाद, भारत में हो रहे लोकसभा चुनावों के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विट किया कि क्यूएस रैंकिंग को “देखना उत्साहवर्धक है! हमारी सरकार बड़े पैमाने पर अनुसंधान, शिक्षण और नवाचार पर ध्यान केंद्रित कर रही है। आने वाले समय में हम इस पर और जोर देंगे, जिससे हमारी युवा शक्ति को लाभ होगा।”

लेकिन वास्तविकता क्या है?

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