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तब्बू को कौन कहता है भारतीय सिनेमा की ‘मेरिल स्ट्रीप’

तब्बू को कौन कहता है भारतीय सिनेमा की ‘मेरिल स्ट्रीप’

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शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक ‘एंटनी एंड क्लियोपेट्रा’ में नायिका क्लियोपेट्रा के लिए लिखा है – “न उम्र उसे मुरझा सकती है और न ही रवायतों की बंदिशें उसके गुणों की चमक फीकी कर सकती हैं.”

शेक्सपियर की इन पंक्तियों की जीती-जागती नज़ीर हम अगर हिंदी सिनेमा की दुनिया में तलाशने जाएं तो अनायास हमारी आँखें तब्बू पर जा ठहरेंगी.

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चार दशकों से जारी अपने सिनेमाई सफ़र में ग्लैमर और गम्भीरता, लोकप्रियता और शास्त्रीयता, हास्य और करुण के नितांत विपरीत छोरों को छूने वाली अपनी अदाकारी के ज़रिए उन्होंने वक़्त और कायदे की हर स्थापित मान्यता को तोड़कर खालिस अपनी इबारत लिखी हैं.

इत्तेफाक़ से बनीं एक्ट्रेस

तबस्सुम हाशमी यानी तब्बू की पैदाइश और परवरिश हैदराबाद के एक शिक्षित परिवार में हुई. हालाँकि उनकी रिश्तेदार शबाना आज़मी हिंदी सिनेमा में स्थापित हो चुकी थीं और बड़ी बहन फ़राह हाशमी की दिलचस्पी भी फ़िल्मों की तरफ शुरू से थी.

लेकिन खुद तब्बू का रुझान सिने-दुनिया में आने का कतई न था. पर ‘बाज़ार’ (1982) फ़िल्म के छोटे से रोल और आगे देवानंद की फ़िल्म ‘हम नौजवान’ (1984) से अनायास उनके क़दम फ़िल्मों की तरफ़ बढ़ चले.

इस बाबत ‘टेलीग्राफ’ को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद बताया है- ” मैं कभी अदाकारा बनना नहीं चाहती थी. यह महज़ संयोग से हुआ. शायद इसीलिए मेरा कोई रोल मॉडल या रेफ़रेंस प्वाइंट भी कभी नहीं रहा.”

सफलता की ओर बढ़े क़दम

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यूँ तो उन्हें सबसे पहले लीड रोल में बोनी कपूर ने ‘प्रेम’ (1995) के लिए साइन किया था. लेकिन परदे पर वो मुख्य अभिनेत्री के तौर पर वेंकटेश के साथ तेलुगू फ़िल्म ‘कुली नं 1’ (1991 ) में दिखीं. पर पहली कामयाबी उन्हें ‘विजयपथ’ (1994 ) से मिली.

अजय देवगन के साथ आई उनकी इस फिल्म ने उन्हें ‘बेस्ट डेब्यू एक्ट्रेस’ का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी दिलाया.

इसके बाद ‘हक़ीक़त’ (1995), ‘साजन चले ससुराल’ (1996 ), ‘जीत’ (1996), ‘बॉर्डर’ (1997), ‘चाची 420’ (1998), ‘बीवी नं 1’ (1999), ‘हम साथ-साथ हैं’ (1999) सरीखी सफल फ़िल्मों ने उन्हें हिंदी सिनेमा में स्थापित कर दिया.

संजीदा अदाकारी की मिसाल

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यह सच है की शताब्दी के ढलते वर्षों में तब्बू एक सफल अभिनेत्री के तौर पर जानी जाने लगी थीं. पंजाब में उग्रवाद की समस्या पर आधारित गुलज़ार की फ़िल्म ‘माचिस’ (1996) और ब्रिटिश राज के बैकड्रॉप पर आधारित कमल हासन की लिखी और प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित मलयालम फ़िल्म ‘कालापानी’ (1996) वो दो शुरुआती फ़िल्में हैं जिन्होंने उनकी अभिनय प्रतिभा से सही मायने में दुनिया को रु-ब-रु कराया.

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‘माचिस’ में सिख लड़की ‘वीरां’ के किरदार के लिए उन्हें ‘सर्वश्रेठ अभिनेत्री’ के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाज़ा गया. इसके अगले साल प्रियदर्शन की हिंदी फ़िल्म ‘विरासत’ (1997) में तब्बू ने गांव की एक साधारण लड़की ‘गहना’ की भूमिका जिस सहजता से निभाई उसने देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया.

फ़िल्म-दर-फ़िल्म खुलती और निखरती तब्बू की अभिनय प्रतिभा का उत्कर्ष मधुर भंडारकर की मशहूर फ़िल्म ‘चांदनी बार’ (2001) में दिखा. बार डांसर ‘मुमताज़’ के किरदार को उन्होंने इतनी बारीकी से परदे पर उतरा कि आज भी इसे ‘मेथड एक्टिंग’ का एक नायाब उदहारण माना जाता है.

इस किरदार के लिए उन्हें दूसरी बार ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार’ दिया गया.

हरफनमौला तब्बू

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तब्बू एक शानदार अदाकारा हैं इसमें किसी को शायद ही संदेह हो. लेकिन भाषागत, विषयगत और चरित्रगत विविधताओं से भरा उनका सिनेमा संसार उन्हें भारतीय सिनेमा में अलहदा बनाता है.

एक तरफ उन्होंने तेलुगू, तमिल, मराठी जैसी भारतीय भाषाओं की फ़िल्में कीं तो वहीं ‘द नेमसेक’ (2006), ‘लाइफ़ ऑफ़ पाइ’ (2012) जैसी इंटरनेशनल फ़िल्में भी कीं.

एक ओर वो शेक्सपियर (मक़बूल और हैदर) चार्ल्स डिकेंस (फितूर), जेन ऑस्टिन (कंडूकोंडेन कंडूकोंडेन) आदि की कालजयी रचनाओं पर आधारित फ़िल्मों का हिस्सा रहीं तो वहीं ‘हेरा-फेरी’ (1999) और ‘गोलमाल अगेन’ (2017) जैसी हल्की-फ़ुल्की फ़िल्मों से भी उन्होंने परहेज़ नहीं किया.

तब्बू के अभिनीत किरदारों की बात करें तो ‘अस्तित्व’ (2000) की द्वंद्वग्रस्त हाउस वाइफ ‘अदिति पंडित’ से लेकर ‘चीनी कम’ (2007) की आत्मविश्वास से लबरेज़ ‘नीना वर्मा’ तक और ‘मक़बूल'(2004) की षड्यंत्रकारी ‘निम्मी’ से लेकर ‘दृश्यम'(2105) की सशक्त पुलिस अफ़सर ‘मीरा देशमुख’ तक या फिर ‘हैदर'(2014) की रहस्यमयी ‘ग़ज़ाला मीर’ से लेकर ‘ए सूटेबल बॉय’ (2020) की मोहक ‘सईदा बाई’ तक तब्बू की सिने-फेहरिश्त से हर रंग के किरदार शमां की तरह रौशन नज़र आते हैं.

तमाम फ़िल्मों में तब्बू के अभिनय को बारीकी से देखें तो उनमें विषय-वस्तु को आत्मसात कर अपने सह-अभिनेता के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए ज़िंदा तनाव पैदा करने की अद्भुत क्षमता नज़र आती है. उनकी यह खासियत हर बदलते दृश्य के साथ भाव और अर्थ के स्तर पर फ़िल्म को नया आयाम देती रहती है.

तभी तो ‘लाइफ़ ऑफ़ पाइ’ में उन्हें निर्देशित करने वाले दुनिया के आला फ़िल्मकार आंग ली उन्हें ‘विश्व सिनेमा की एक निधि’ मानते हैं.

तब्बू की विरासत

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आज तब्बू का जन्मदिन है और वो 50 वर्ष की आयु पार कर चुकी हैं. दो राष्ट्रीय पुरस्कारों, आधा दर्जन फिल्मफेयर पुरस्कारों और ‘पद्म श्री’ से सजा चार दशकों से जारी उनकी सिने-यात्रा आज भी अपनी स्वाभविक गति से जारी है.

वो अपने अभिनय में जितनी ऊँची हैं, व्यावहारिक ज़िन्दगी में उतनी ही सहज और शालीन हैं. उनके अभिनय में ली स्ट्रासबर्ग का मशहूर अभिनय सिद्धांत जिसमें सटीक अभिनय के लिए ‘इम्प्रोवाइज़ेशन’ और ‘अफेक्टिव मेमोरी’ को लाज़िमी माना गया है, बार-बार सिद्ध होता नज़र आता है. तभी तो वो शेक्सपियर और डिकेंस को पढ़े बिना उन कृतियों पर बनी फ़िल्मों के कालजयी पात्रों को जीवंत कर पाती हैं. तकरीबन एक ही समय दो अलग-अलग भाषाओँ की नितांत भिन्न विषयों पर बनी फिल्मों में स्तरीय अदाकारी कर पाने में सफल हो पाती हैं.

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ये उनकी अभिनय क्षमता ही है जिसकी वजह से वो मुख्य भूमिका में न रहते हुए भी फिल्म की केंद्रीय धुरी बन जाती हैं.

मिसाल के तौर पर हैमलेट पर आधारित ‘हैदर’ में माँ ग़ज़ाला मीर (गरट्रूड) की सहायक भूमिका में थीं. पर उनकी अदाकारी को देखकर ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ को कहना पड़ा – “फ़िल्म का नाम तो हैदर की जगह ग़ज़ाला होना चाहिए था.”

‘माचिस’ और ‘हु-तू -तू’ के बाद ही गुलज़ार ने उन्हें मीना कुमारी और नूतन सरीखी ‘सूझबूझ वाली’ अदाकारा कह दिया था.

रूप-भेद और भाव के स्तर पर विषय, परिवेश और भाषा की बारीकियों को समझते हुए परदे पर किरदारों को उतारने की जैसी क्षमता ‘सोफ़ीज़ चॉइस’ (1982), ‘आउट ऑफ़ अफ्रीका’ (1985), ‘द आयरन लेडी’ (2011) जैसी यादगार फिल्मों में केंद्रीय भूमिका निभाने वाली हॉलीवुड की नामचीन अदाकारा मेरिल स्ट्रीप में दिखती है, कहीं न कहीं वही ख़ूबी तब्बू के क्राफ्ट में भी हमें नज़र आती है. और शायद इसीलिए मीरा नायर ने बाक़ायदा ‘टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ के मंच से उन्हें ‘भारतीय सिनेमा की मेरिल स्ट्रीप’ कहा था.

इन सबके जवाब में तब्बू ने ‘टेलीग्राफ’ को दिए इंटरव्यू में सादगी भरे लहजे में इतना भर कहा है- “अभिनय मेरे लिए एक अनुभव की तरह है….. जो अनायास हो जाता है.”

कृतित्व की ऊंचाई पर रहकर भी सहज शालीनता के दामन को थामे रहना ही शायद उनकी बेमिसाल विरासत है.

Haresh pradhan

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