छत्तीसगढ़ताजा ख़बरेंब्रेकिंग न्यूज़राज्यरायपुर

नए दौर में स्त्रियां रच रही हैं अपनी दुनिया का साहित्य

रायपुर : नए दौर में स्त्रियां रच रही हैं अपनी दुनिया का साहित्य

a41ad136-ab8e-4a7d-bf81-1a6289a5f83f
ea5259c3-fb22-4da0-b043-71ce01a6842e

साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद

सार्थक चर्चाओं व काव्यपाठ के साथ दो दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम

‘स्त्री-2023 सृजन और सरोकार’ का समापन

साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद की ओर से दो दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम ‘स्त्री-2023 सृजन और सरोकार’ के अंतर्गत दूसरे और अंतिम दिन सोमवार 20 फरवरी को शहर के न्यू सर्किट हाउस सिविल लाइंस स्थित कन्वेंशन हॉल में देशभर से आये रचनाकारों, समीक्षकों ने आज भी विचारोत्तेजक चर्चा की। जिसमें स्त्री विमर्श से जुड़े विभिन्न मसलों पर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में वक्ताओं ने अपने विचार रखे। शाम के सत्र में कविता पाठ ने भी दर्शकों को बांधे रखा।
सुबह पहले सत्र में ‘साहित्य में स्त्री और स्त्री का साहित्य’ विषय पर वक्ताओं ने अपनी बात रखी। जिसमें मूल रूप से यह विचार उभर कर आया कि पहले पुरुष के रचे साहित्य से स्त्रियां व्याख्यायित होती थीं, अब नया दौर है इसमें स्त्रियां अपनी दुनिया का साहित्य खुद रच रही हैं।
आशीष मिश्र ने समकालीन कविता में स्त्री और स्त्री की समकालीन कविता पर वक्तव्य की शुरुआत की। उन्होंने आधुनिक स्त्री कविताओं को चार प्रस्थान बिंदुओं में बांट कर कहने के विषय के विकास को स्पष्ट किया।
पूनम वासम (बीजापुर) और जंसिता केरकेट्टा (झारखंड) की कविताओं में प्रकृति के स्त्री के साथ तारतम्य से जुड़े प्रतिमानों और संबंधों को उजागर करती कविताओं ने अपनी पहचान बनाई। पूनम अरोड़ा ने स्त्री दृष्टि या पुरुष दृष्टि के बजाय स्त्री भाषा और पुरुष भाषा के अनुसार साहित्य के रचे जाने को ही महत्वपूर्ण बताया।

mantr
96f7b88c-5c3d-4301-83e9-aa4e159339e2 (1)

साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद
प्रिया वर्मा ने भारत में विक्टोरिया युग में प्रारंभ हुए स्त्री शिक्षा के समय के एक अच्छी स्त्री होने के मापदंडों को आज भी मध्यवर्ग की स्त्रियों में लागू होने की बात करते हुए ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग अलग समस्याओं का जिक्र किया।हेमलता माहेश्वर ने स्त्री के रूप में लिखना साहित्य में एक राजनैतिक हस्तक्षेप मानते हुए हाशिये पर खड़े लोगों की अनसुनी आवाजों को सुनने के लिये साहित्य के लिये जरूरी बताया। उन्होंने कहा कि पाली से हिंदी में विमल कीर्ति के अनुवाद आने के बाद सुमंगला माता जैसी कृतियों से स्त्री आवाजों को बाद में चिन्हित किया गया। फुले दंपति और डॉ भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से महिलाओं के स्वरों को आवाज़ मिली। उन्होंने मुद्दा उठाया कि जंसिता केरकेट्टा जैसी कलमकारों की रचनाओं में ’मेरा गांव घर जिधर है शासन की बंदूक उधर है’ जैसे सवाल अब भी क्यों है..?
डॉ रोहिणी अग्रवाल ने भारतीय इतिहास में योगदान करने वाली महिलाओं का जिक्र करते हुए कहा कि आज भी जेंडर आधार पर महिलाओं उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा साहित्य हो या क्रिकेट भारतीय स्त्रियों को प्रोत्साहन नही मिलता।
साहित्य जगत भी अपनी समकालीन स्त्री रचनाकारों को कहाँ, कैसे दर्ज करता है? 1882 की ’सीमान्तनी उपदेश’ जैसी किताबों को इतिहास से विलुप्त करके उसी समय में आयी ’बंग महिला’ को सुविधाजनक होने के कारण दर्ज किया गया। इस सत्र का संचालन रश्मि रावत ने किया।
साहित्य में स्त्री दृष्टि पर रचनाकार बोले-जीवन भर बेदखली या विस्थापन झेलती है स्त्री
आयोजन का दूसरा सत्र चर्चा का था। जिसमें ‘साहित्य में स्त्री दृष्टि क्या है..?’ विषय पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे।जयशंकर ने कहा-रचनाकार के अंदर स्त्री और पुरुष दोनों की दृष्टि काम कर रही होती है जो हमे एक सर्जक के तत्व की ओर ले जाती है। इसका उदाहरण ‘चोखेर बाली’ के रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर और ‘अन्ना केरेनना’ के रचयिता लियो टालस्टाय की रचनाओं में देखा जा सकता है।
लवली गोस्वामी ने स्त्री दृष्टि को पुरुष से अलग बताते हुए कहा कि संतान जनने की प्रक्रिया और ट्रांसजेंडर की जिंदगी के दुखों से वंचित रहने के कारण उसकी अभिव्यक्ति अलग होगी। जबकि स्त्री का रचा साहित्य सर्वकालिक समन्वित जेंडर की जरूरत और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करेगा। प्रत्यक्षा ने कहा कि अपनी रचना प्रक्रिया के दौरान रचनाकार अपने जेंडर से ट्रांसजेंड करके अधिक सटीकता से लिख पाता है। बाहर और भीतर की दुनिया को उकेरने का काम स्त्री दृष्टि से किया जाता है जो बहुत महत्वपूर्ण सर्जना का कारण बनता है।
प्रियंका दुबे ने स्त्री जीवन में आज आये बदलाव का असर आज के साहित्य में कम ही दिखने की शिकायत करते हुए कहा स्त्री जीवन भर बेदखली या विस्थापन झेलती है और वही उसकी रचनाओं में अपनी जटिलताओं, परतों के साथ बहुत कम आ रहा है साहित्य में। उसकी सटीक अभिव्यक्ति के लिये हर स्तर पर रचनाकारों को खुद को भी विकसित करना होगा।साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त ने अंत मे हस्तक्षेप करते हुए प्रश्न उठाया कि,क्या हर स्त्री के पास स्त्री दृष्टि हो सकती है? क्या हर मजदूर के पास श्रमिक दृष्टि और दलित के पास दलित दृष्टि हो सकती है?
शायद नही, भले ही उस दृष्टि को हासिल करना उसके लिये आसान होगा। स्त्री के ऊपर मातृत्व की विचारधारा को जैसे लाद दिया जाता है उसी तरह प्रकृति की उपमा से जोड़ कर स्त्रीभाव पर लाद देना भी वैसी ही प्रक्रिया लगती है। पिछले कुछ सालों में साहित्य व आलोचना के स्थापित प्रतिमानों के सामने स्त्री लेखन ने बड़ी चुनौती पेश की है।
काव्यपाठ में उभरी स्त्री संवेदनाएं
आयोजन के अंतिम दिन का अंतिम सत्र काव्यपाठ के नाम रहा। जिसमें स्त्री रचनाकारों के साथ साथ पुरुष कवियों ने भी भागीदारी की। इस आयोजन में शाम 4ः00 बजे कविता पाठ सत्र में देवी प्रसाद मिश्र, मृदुला सिंह, गिरिराज किराडू, श्रुति कुशवाहा, पूनम अरोड़ा, सुमेधा अग्रश्री,नेहल शाह, प्रिया वर्मा, रूपम मिश्र और लवली गोस्वामी ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इन कवियों में लवली गोस्वामी ने कहा-’प्रेम में उतना डूबो, जितना डूबती है नाव’। गिरिराज किराडू ने कहा-’हत्या करने के विचार से उत्तेजित टीवी स्टूडियो को हर उस भाषा में बोलना आता था जिसमें अब तक बोलने और चुप रहने की कोशिश की थी मैंने’। नेहल की रचनाओं में आजादी की बात थी। उन्होंने कहा-’मैं सोचती रही आज़ादी है मुझे चुनने की रंग अपनी पसंद के किन्तु यह संभव न हुआ कभी।’ प्रिया वर्मा ने स्त्री अनुभूति पर कहा-’क्या होता है अकेला होना जानने के लिए लेना पड़ा मुझे जन्म’। पूनम अरोड़ा ने कहा-’तुम इतने बोधगम्य हो,जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा एक कामनाहीन पत्ता।’ देर शाम तक चले काव्यपाठ के बाद आयोजन का समापन हुआ।

Ashish Sinha

8d301e24-97a9-47aa-8f58-7fd7a1dfb1c6 (2)
e0c3a8bf-750d-4709-abcd-75615677327f

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!