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“आखर अंजोर” – पर एक पाठकीय मन्तव्य…

“आखर अंजोर” – पर एक पाठकीय मन्तव्य…
नाम से ही व्यक्ति की प्रवृत्ति का अहसास हो ऐसा अक्सर नहीं होता। पर कुछ ऐसे नाम भी होते हैं जो व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का परिचय देते प्रतीत होते हैं। एक ऐसा ही नाम है “सुशील भोले”। आध्यात्मिकता से ओतप्रोत व्यक्ति ही ऐसा नामधारी हो सकता है। लगता है सुशील के साथ भोलेनाथ जी स्वयं आकर विराजमान हो गए हैं। मैंने अक्सर भोजन के समय उनपर भोलेनाथ की सवारी आते देखा है। ऐसा व्यक्ति ही “आखर अंजोर” फैलाने का माध्यम हो सकता। “आखर अंजोर” के पहले भोले जी छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका “मयारू माटी” का सफल प्रकाशन भी कर चुके हैं जिसे छत्तीसगढ़ी की पहली पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है। लेकिन यहाँ पर हम अपना ध्यान “आखर अंजोर”पर ही केंद्रित करना चाहेंगे।
भोले जी का “आखर अंजोर” छत्तीसगढ़ के मूल धर्म और संस्कृति का लेखा-जोखा है। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के हाथों विमोचित “आखर अंजोर” को पुस्तक में द्वितीय संस्करण कहा गया है जिसे मैं “आखर अंजोर-भाग दो” कहना ज्यादा उचित समझता हूँ और संभवतः पाठक भी इससे सहमत होंगे जिन्होंने “आखर अंजोर” का प्रथम संस्करण पढ़ा है। जहाँ प्रथम संस्करण की पूरी सामग्री छत्तीसगढ़ी में थी वहीं द्वितीय संस्करण में अधिकांश लेख हिंदी में हैं। प्रायः आगामी संस्करण में पूर्व संस्करण के सभी सामग्री संशोधित रूप में मौजूद होते हैं जबकि यहाँ ऐसा नहीं है।
बहरहाल “आखर अंजोर” हमारे समक्ष ऐसे लेखों का संग्रह है जिसमें छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति, पर्व, मान्यता और उच्च स्तरीय अध्यात्म के दर्शन होते हैं। संग्रह के पहले दो लेख भोलेनाथ शिव को ही समर्पित है-क्ष”शिव ही जीव समाना” और “शिवलिंग की वास्तविकता”। कबीरदास जी कह गए हैं- “ज्यूँ बिंबहिं प्रतिबिंब समाना, उदिक कुंभ बिगराना। कहै कबीर जानि भ्रम भागा, शिव ही जीव समाना।” शिव ही सबकुछ है। शिवलिंग वास्तव में क्या है? वह समस्त ब्रह्माण्ड में तेज रूप में व्याप्त परमात्मा का प्रतीक स्वरूप है। इसकी भौतिक स्वरूप में व्याख्या निरी मूर्खता और द्वेषपूर्ण प्रवंचना है।
शब्दों को हम जिस रूप में जानते समझते हैं इससे इतर यदि शब्दों के नवीन अर्थ का ज्ञान होता है तो जो खुशी मिलती है उसका अनुभव एक सुधि और गंभीर पाठक ही कर सकता है। इसीलिये तो यह “आखर अंजोर” है जो नए अर्थों को प्रकाशित कर रहा है। नर्मदा नदी का नर-मादा के रूप में विवेचना ऐसा ही प्रसंग है। कहा गया है कि मानव जीवन की उत्पत्ति छत्तीसगढ़ में हुई है। यहाँ के मूल निवासी अमरकंटक की पहाड़ी को नर-मादा अर्थात मानव जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिह्नित करते हैं। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और मूल पर्व को जानना है तो इस पुस्तक को जरूर पढ़ना चाहिए। मेरा दावा है मूल छत्तीसगढ़िया अपनी मौलिक पहचान को भूलकर कितने गलत मार्ग की ओर अग्रसर हो चुके हैं और अपनी मूल संस्कृति का विनाश कर रहे हैं वह शीशे के समान स्पष्ट हो जाएगा। कमरछठ को हलषष्ठी के रूप में प्रचारित करना और इसे बलराम जयंती से जोड़ना इसका एक उदाहरण है। दशहरा और होली पर्व भी अपने मूल स्वरूप से विचलित हो गया है। ऐसा प्रायः हर त्योहारों के साथ देखने को मिल जाएगा जिसमें छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति को भुलाने और आगत संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। छत्तीसगढ़ में गौरी-गौरा का विवाह कातिक अम्मावस की रात्रि में जब संपन्न हो सकता है तो देवउठनी के पहले शुभ कार्य न करने की परंपरा कहाँ से आई? मड़ई-मेला छत्तीसगढ़ की पहचान हुआ करती थी जो कि अब विलुप्ति के कगार पर है। लेखक का कहना है कि जब संस्कृति ही नहीं बचेगी तो समाज कहाँ बचेगा। छत्तीसगढ़िया कोन…? के संबंध में लेखक का स्पष्ट मत है- “जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जीता है वही छत्तीसगढ़िया है।” आज इसी संस्कृति को विनष्ट करने चौतरफा हमला हो रहा है जिससे लेखक का व्यथित होना स्वाभाविक है। लेखक कूपमण्डूक होने का संदेश भी नहीं देता, वो तो कहता है- “दुनिया का कोई ग्रंथ न तो पूर्ण है न पूर्ण सत्य। इसलिए ज्ञान और आशीर्वाद जहाँ से भी मिले उसे अवश्य ग्रहण करना चाहिए पर शर्त यह है कि अपनी अस्मिता की अक्षुण्णता कायम रहे।”
“सुशील भोले के गुन लेवव ये आय मोती बानी,
सार-सार म सबो सार हे, नोहय कथा-कहानी।
कहाँ भटकथस पोथी-पतरा अउ जंगल-झाड़ी,
बस अतके ल गांठ बांध ले, सिरतो बनहू ज्ञानी।।
-दिनेश चौहान
छत्तीसगढ़ी ठीहा, शीतला पारा,
नवापारा – राजिम
मो.न. 9111528286

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Ashish Sinha

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