
‘कितनी भी मुश्किल रहे, राही तेरी राह, मंज़िल मिलनी है तुझे, मन में हो गर चाह’
‘कितनी भी मुश्किल रहे, राही तेरी राह, मंज़िल मिलनी है तुझे, मन में हो गर चाह’
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर तुलसी साहित्य समिति की सरस काव्यगोष्ठी
अम्बिकापुर। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर तुलसी साहित्य समिति के द्वारा केशरवानी भवन में वरिष्ठ अधिवक्ता ब्रह्माशंकर सिंह अध्यक्षता में सरस काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गीता मर्मज्ञ पं. रामनारायण शर्मा, विशिष्ट अतिथि शायर-ए-शहर यादव विकास, सच्चिदानंद पाण्डेय व वरिष्ठ गीतकार उमाकांत पाण्डेय थे।
कार्यक्रम का शुभारंभ मां वीणावादिनी की अर्चना, तुलसीकृत रामचरितमानस व बंशीधर लाल रचित सरगुजिहा रामायण के सस्वर पाठ से हुआ। वरिष्ठ विचारक ब्रह्माशंकर सिंह ने कहा कि रामकृष्ण परमहंस देश के एक महान संत, योगी, संन्यासी, आध्यात्मिक गुरु, विचारक, मानवीय मूल्यों के संपोषक, मां काली के अनन्य उपासक और सिद्ध महापुरुष थे। वे सभी धर्मों को ईश्वर-प्राप्ति का साधन मानते थे। उन्होंने अपनी तपस्या, सत्संग व स्वाध्याय से अलौकिक आत्मज्ञान प्राप्त कर जीवनन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त कर लिया था। परमहंस ने समाज को एकता, भाईचारा व प्रेम का संदेश दिया। पं. रामनारायण शर्मा का कहना था कि रामकृष्ण परमहंस- जैसे आध्यात्मिक पुरुष देश में विरले ही हुए हैं। उनका दिव्य जीवन, ज्ञान व दर्शन सम्पूर्ण मानवता के लिए था। वे आधुनिक भारत के महान स्वप्न दृष्टा थे। शोषित, वंचित, पीड़ित जनता की सेवा को वे ईश्वरीय सेवा मानते थे। उन्होंने युवक नरेन्द्रदत्त को विवेकानंद बनाने में अहम भूमिका निभाई। रामकृष्ण मिशन के माध्यम से उनके विचारों को उनके शिष्यों ने विश्वव्यापी बनाया है। उनका जन्म बंगाल के कामारपुकर में सन् 1836 में हुआ था। उनका बचपन का नाम गदाधर था। उनकी माता चंद्रादेवी व पिता खु़दीराम थे। बड़े भाई के आकस्मिक निधन से उन्हें वैराग्य की प्राप्ति हुई। वे कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी बने तथा काली माता को ही अपनी व ब्रह्मांड की माता के रूप में देखने लगे तथा आजीवन उनकी सेवा में तत्पर रहे। उन्होंने भैरवी ब्रह्माणी से तंत्रशिक्षा व तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया था।
काव्यगोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष दोहाकार व शायर मुकुंदलाल साहू ने प्रेरणादायी दोहे सुनाए- जीवन इक संग्राम है, करें इसे स्वीकार। बाधा-विपदा से कभी नहीं मानिए हार। कितनी भी मुश्किल रहे, राही तेरी राह। मंज़िल मिलनी है तुझे, मन में हो गर चाह। वरिष्ठ गीतकार देवेन्द्रनाथ दुबे ने समय की महत्ता बतानेवाली गीत रचना की प्रस्तुति देकर श्रोताओं को भावविभोर कर दिया-समय बड़ा बलवान् जगत् में, समय बड़ा बलवान्! समय सामने शेर-शूर सब, सारे शीश नवाते। समय समक्ष मानापमान सत् समयनिष्ठ हो जाते। समय त्रिलोक्यजयी है सुन लो, सबने की पहचान! नवोदित कवि परमेश्वर भगत ने तो महाबली भीम को अखण्ड कालखंड का वीर बताने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं किया- अखण्ड कालखंड का मैं वीर शूरवीर हूं। क्रोध जो अगर रहे तो बोलती गदा मेरी। पांडवों में एक मैं कुंतीपुत्र भीम हूं! वीर रस के कवि अम्बरीष कश्यप ने लोगों की बदली प्रवृत्ति व मिज़ाज को बयान किया- जब से बेईमान प्यारे लग रहे हैं, आनवाले सब किनारे लग रहे हैं। घर में छाए दीमकों को देखकर, ख़ुद से वो तो हारे लग रहे हैं! कविवर प्रकाश कश्यप ने अपने काव्य मंे ऋतुराज वसंत के आगमन पर प्रकृति के उल्लास का अत्यंत मनोरम चित्रण किया- तोड़ रही कलियां हैं घंूघट की लाज। धरती के आंगन में उतरा ऋतुराज। अमराई महक उठी, उन्मत्त मकरंद। फूलों के होंठों से झरते हैं छंद। छेड़ रही पुरवाई अंतर के साज! वरिष्ठ कवि उमाकांत पाण्डेय ने जब अलहदा अंदाज़ में इश्क़ की ग़ज़ल सुनाई तो सब झूम उठे- ज़िंदगी हुई बसर रायदां-रायदां! मेरे शानों-शहर रायदां-रायदां। ज़र्रे-ज़र्रे में चर्चे तेरे हुस्न के, मेरे इश्क़े-हुनर रायदां-रायदां! कवयित्री अर्चना पाठक ने इंसान की सही परिभाषा गढ़ी- दुखियों के दुख दूर करे आदमी है वह, इंसानियत से प्यार करे, आदमी है वह। उत्थान और पतन के चक्र घूम रहे हैं। दोनों में सम का भाव रखे, आदमी है वह!
कवि अजय श्रीवास्तव जब सांसारिक संघर्षों से थक कर चूर हो जाते हैं तो उन्हें भगवान कृष्ण की बरबस ही याद आ जाती है तब उनके कंठ से अनुनय के बोल सहज ही फूट पड़ते हैं। इस बार भी कविगोष्ठी में यही हुआ। उनके काव्य की बानगी देखिए- बहुत थक गया हूं कान्हा सुला दे। मां-जैसे गाती थी, वैसा ही गा दे। नहीं जानता कान्हा कब तक रखोगे! अंत में, 83 वर्षीय महान शायर यादव विकास ने अपने तजुर्बों का पिटारा खोल दिया और अपनी बेहतरीन ग़ज़ल में ज़िंदगी के फ़लसफे़ को कुछ इस तरह बयां किया कि पूरी महफ़िल वाह-वाह कर उठी- हसरतों के सिलसिले दिल से निकल गए। नज़रें बदल गईं तो, नज़ारे बदल गए। ऐ बा़गबां, निज़ाम तेरा देख रहा हूं। मुरझा गए जो फूल तो कांटें उछल गए! हमला किया अंधेरों ने जब कभी ‘विकास‘, चराग़ झोपड़ी के महलों में जल गए! कार्यक्रम का काव्यमय संचालन उमाकांत पाण्डेय और आभार कवि अजय श्रीवास्तव ने जताया। इस दौरान केके त्रिपाठी, दुर्गाप्रसाद श्रीवास्तव, रमाशंकर गुप्ता, लाजवंती, मदालसा गुप्ता, महिमा, मंदाकिनी श्रीवास्तव, प्रमोद आदि काव्यप्रेमी नागरिक उपस्थित रहे।